Tuesday, 25 June 2013

सपा सरकार की आतंक के मुकदमें वापस लेने या साप्रदायिक राजनीती को उभारने की कोशिश

सपा सरकार की आतंक के मुकदमें वापस लेने या साप्रदायिक राजनीती को उभारने की कोशिश
-एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट  
आज एक समाचार पत्र में यह समाचार छपा है कि उत्तर प्रदेश कि समाजवादी सरकार ने गोरखपुर की एक अदालत में सरकारी वकील के माध्यम से गोरखपुर बम विस्फोट के आरोपी तारिक कासमी के मुक़दमे को यह कह कर वापस लेने का अनुरोध किया है कि इस में इस आरोपी में विरुद्ध सज़ा दिलाने के लिए पर्याप्त साक्ष्य नहीं है. इस पार्थना पत्र में इस मुकदमे को वापस लेने के निम्नलिखित पांच आधार दिए गए है:
1.       अगर अपर्याप्त साक्ष्य के होते हुए भी आरोपी को जेल में रखा जाता है और वह बाद में दोष मुक्त हो जाता है, तो इस से समाज में एक गलत सन्देश जायेगा जिस का जनहित पर बुरा असर पड़ेगा.
2.       यह  जनहित में महत्वपूर्ण है कि कमज़ोर लोगों का दुर्भावना से उत्पीड़न नहीं होना चाहिए.
3.       शांति तथा सामाजिक समरसता बनाये रखने के लिए.
4.       इस मामले में अपर्याप्त साक्ष्य है  और इस कि कड़ी अधूरी है. अतः इस में आरोपी के छूटने की सम्भावना है. यह जनहित और न्याय के हित में नहीं होगा कि उसके विरुद्ध मुकदमा चलाया जाये. मुकदमे को चालू रखना सरकारी कोष पर एक अनावश्यक बोझ है और जनता के धन की बर्बादी है.
इस प्रार्थना पत्र में निमेश कमीशन की रिपोर्ट का भी उल्लेख किया गया है जिस में तारिक और खालिद की गिरफतारी और उन से असलों और विस्फोटों की दिखाई गयी बरामदगी को संदिग्ध बताया गया है और असली मुजरिमों को पकड़ने और इन लोगों को फर्जी तरके से गिरफ्तार करने और बरामदगी दिखने वाले पुलिस अधिकारियों को चिन्हित कर दण्डित करने की सिफारिश भी की गयी है. यह भी उल्लेखनीय है कि इस से पहले इसी प्रकार का प्रार्थना पत्र बाराबंकी के न्यायलय द्वारा निरस्त किया जा चुका है जिस में जनहित और साम्प्रदायिक  सदभावना  के आधार पर तारिक और खालिद के विरुद्ध लखनऊ और फैजाबाद कचेहरी परिसर में विस्फोटों के मुकदमे वापस लेने का अनुरोध किया गया था.
अब अगर बाराबंकी और गोरखपुर के न्यायालयों में तारिक और खालिद के मुकदमों को वापस लेने के लिए दिए गए आधार को कानूनी तौर पर देखा जाये तो यह बिलकुल अस्वीकार्य है. जनहित , सामाजिक समरस्ता और अपर्याप्त साक्ष्य मुकदमा वापस लेने का उचित आधार नहीं हो सकता और इस के अदालत द्वारा अस्वीकार किये जाने की बहुत बड़ी सम्भावना है. इस से स्पष्ट है कि अखिलेश सरकार मुकदमों को वापस लेने के ठोस आधार के स्थान पर केवल सरसरी आधार देकर रस्म अदायगी कर रही है. इस से जहाँ वह एक ओर मुसलमानों को यह कह कर खुश करने का प्रयास कर रही है कि वह तो मुक़दमे वापस लेना चाहती है पर इस में अदालतें बाधक बन रही हैं. वहीँ वह मुकदमों की वापसी के लिए कोई भी ठोस और उचित कार्रवाई न करके कट्टरवादी हिन्दुओं की नाराज़गी से भी बच रही है. सरकार की इस आधी अधूरी कार्रवाई से मुसलमानों का कोई भला नहीं हो पा रहा है परन्तु इस से हिन्दुओं में यह सन्देश ज़रूर जा रहा है कि मुलायम सिंह मुसलमानों का तुष्टिकरण कर रहे हैं और उनके प्रति एक अनावश्यक आक्रोश बढ़ रहा है. दरअसल यह रणनीति अपना कर मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश में मुसलमानों और हिन्दुओं के वोट का ध्रुविकरण करना चाहते हैं जो कि उन की और भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति  के लिए लाभकारी है.
अब अगर देखा जाये कि क्या मुलायम सरकार के पास तारिक कासमी, खालिद मुजाहिद या अन्य आतंकी मामलो में फंसाए गए निर्दोष लोगों के मुक़दमे वापस लेने का  कोई ठोस और कानूनी आधार उपलब्ध नहीं है. सच्चाई यह है कि इन मामलों को वापस लेने के लिए उसके पास बहुत ठोस और कानूनी आधार उपलब्ध हैं परन्तु वह उसे जानबूझ कर पेश नहीं कर रही है.
अखलेश सरकार के पास  तारिक और खालिद जिन्हें यूपी पुलिस ने हुजी के सदस्य होना कहा है, के मामले में निमेश कमीशन की रिपोर्ट है जिस के आधार पर वह इन के विरुद्ध मुकदमों की पुनर विवेचना और असली दोषी मुजरिमों को पकड़ने की बात कह सकती है. इस के इलावा इन की बेगुनाही का सब से बड़ा सबूत यूपी एटीएस के पास है जो कि 2008 में  पकडे गए तथाकथित इंडियन मुजाहिदीन के सदस्यों की पूछताछ रिपोर्टें (इन्टेरोगेशन रिपोर्ट) हैं जिस में उन्होंने कचेहरी विस्फोटों के साथ साथ गोरखपुर, वाराणसी, फैजाबाद और श्रमजीवी ट्रेन में हुए विस्फोटों की जिम्मेदारी सवीकार की है. यह रिपोर्ट अन्य राज्यों की पुलिस के पास भी उपलब्ध हैं क्योंकि इन व्यक्तिओं से उन्होंने भी पूछताछ कि थी. यूपी एटीएस ने पूछताछ रिपोर्टों को गोपनीय करार देकर छुपाया है और इसे अदालत के सामने जानबूझ कर नहीं रखा है. एटीएस के पास यह रिपोर्टें 2008 से ही हैं परन्तु इस तथ्य को पहले पकडे गए और चालान किये गए तथाकथित हुजी सदस्यों की बेगुनाही के सबूत के तौर पर अदालत में पेश नहीं किया गया. यदि एटीएस इन रिपोर्टों को इमानदारी बरतते हुए समय से अदालत में पेश कर देती तो हुजी के नाम पर जेलों में सड़ रहे बहुत से व्यक्ति छूट जाते और असली मुजरिम पकडे जाते. परन्तु एटीएस ने ऐसा न करके न केवल अदालत को धोखा दिया है बल्कि बहुत से निर्दोष व्यक्तियों को झूठे गंभीर मामलों में  फंसाने का अपराध भी किया है. मुलायम सरकार चाहे तो अभी भी अदालत के सामने इन सबूतों को आधार बना कर  औ पुनर विवेचना कि मांग रख कर मुकदमे वापस ले सकती है परन्तु वह जानबूझ कर ऐसा न करके केवल सरसरी आधार पर मुक़दमे वापस लेने का नाटक कर रही है जो कि उसकी साम्प्रदायिक राजनीति का हिस्सा है.
जहाँ तक इन मामलों में साक्ष्य के अपर्याप्त होने का प्रशन है वह न केवल अपर्याप्त है बल्कि बिलकुल तुच्छ भी है. इस का अंदाज़ा इस से लगाया जा सकता है कि कचेहरी बम विस्फोट में खुफिया एजंसी अर्थात आई बी  कि रिपोर्ट को एफ. आई. आर का आधार बनाया गया है और शस्त्र और विस्फोटक कि बरामदगी दिखाई गयी है. इस के इलावा विवेचना में मुजरिमों के इकबालिया बयान आरोप सिद्ध करने का आधार है. सब से हास्यस्पद साक्ष्य तो यह है कि इस में इन्टरनेट से “इंस्टीटयूट आफ डिफेन्स स्टडीज एंड  एनाल्सिज़” की वेबसाइट से “हुजी आफ्टर दी डेथ ऑफ़ इट्स इंडिया चीफ’ शीर्षक का लेख डाउनलोड करके साक्ष्य के रूप में पेश किया गया है क्योंकि इस में लिखा हुआ है कि  हुजी के लोगों ने देश के अन्य हिस्सों के साथ साथ उत्तर प्रदेश में भी आतंकी घटनाएँ की थीं. अतः पुलिस ने उस समय पकडे गए इन निर्दोष लोगों को हुजी के सदस्य करार दे कर इन मामलों में फिट कर दिया जबकि पुलिस की अपनी पूछताछ रिपोर्ट के अनुसार 2008 में पकडे गए तथाकथित इंडियन मुजाहिदीन के लोगों ने इन घटनाओं को करने की बात स्वीकार की थी. इस से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि पुलिस ने इन मामलों में किस तरह हलके फुल्के तरीके से विवेचनाएँ की और हलके फुल्के साक्ष्य के आधार पर चार्ज शीट लगा दी.  
इसी महीने की 13 तारीख को आशीष खेतान , एक ख्याति-प्राप्त पत्रकार, ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की है जिस में उस ने ऊतर प्रदेश के आतंक से सम्बन्धित सात मामलों में उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा विवेचना में की गयी जालसाजी और धोखाधड़ी के परिपेक्ष्य में इन सब मामलों की पुनर विवेचना करने, दोषी पुलिस अधिकारियों को दण्डित करने, निर्दोष व्यक्तियों को छोड़ने और पुनर्वासित करने का अनुरोध किया है. उस ने अपनी याचिका के साथ यूपी एटीएस की गोपनीय कह कर छुपायी गयी पूछताछ रिपोर्टें भी संलग्न की हैं जिन से यह सिद्ध होता है कि पुलिस ने आतंक के जिन सात मामलों में जिन लोगों को हुजी के सदस्य कह कर फंसाया है और वे  6 से 8 साल से अधिक समय से जेलों में सड़ रहे हैं और जिन में खालिद की न्यायायिक हिरासत में मौत हो गयी और  श्रमजीवी विस्फोट के एक आरोपी वसिउर्रह्मान को  दस साल की सजा भी हो गयी है निर्दोष हैं.  हो सकता है कि इसी प्रकार की सजा दूसरे आरोपियों को भी हो जाये.
अब अगर माननीय उच्च न्यायालय ने आशीष खेतान की जनहित याचिका को स्वीकार कर इन सभी मामलों की पुनर विवेचना का अनुरोध सवीकार कर लिया तो इस से यूपी पुलिस की इन विवेचनाओं में की गयी धोखाधड़ी और जालसाजी सामने आ जाएगी जिस के फलस्वरूप इसे करने वाले पुलिस अधिकारियों को सजा भी मिल सकती है. लगता है कि अखिलेश सरकार इन पुलिस अधिकारियों  दण्डित होने और असली मुजरिमों को पकड़ने से डरती है और वह मुक़दमे वापस लेने के ठोस आधार पेश न करके केवल सरसरी आधार देकर रस्म अदायगी कर रही है. इस में उसकी साम्प्रदायिक राजनीति भी शामिल है जिस  के तहत वह एक तीर से दो निशाने बना कर उत्तर प्रदेश में सम्प्रदायिक राजनीति को तेज करना चाहती है. इस लिए प्रदेश में सभी धर्मनिरपेक्ष और जनवादी ताकतों को एक जुट हो कर मुलायम सिंह और भाजपा की आतंकवाद के नाम पर सम्प्रदायिक राजनीती का विरोध करना चाहिए और निर्दोषों को न्याय दिलाने के लिए आगे आना चाहिए. हाल में आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने “कानून का राज के लिए जन अभियान” के अंतर्गत दस दिन के उपवास और धरने के माध्यम से इस दिशा में पहलकदमी ली है. इस में उसे वाम जनवादी और धर्म निरपेक्ष ताकतों का भारी समर्थन भी मिला है.   

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