Saturday 21 June 2014

* आइपीएफ ने फूंका मोदी सरकार का पुतला * जनविरोधी रेल भाड़ा वापस ले सरकार

* आइपीएफ ने फूंका मोदी सरकार का पुतला
* जनविरोधी रेल भाड़ा वापस ले सरकार

लखनऊ, 21 जून 2014, आल इण्डिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) ने मोदी सरकार
द्वारा रेल यात्री किराए में 14.2 प्रतिशत और माल भाड़ा में 6.5 प्रतिशत की
वृद्धि करने के अलोकतांत्रिक व जनविरोधी
फैसले के खिलाफ पूरे देश में मोदी सरकार का पुतला फूंका। लखनऊ में आइपीएफ
के प्रदेश संगठन प्रभारी दिनकर कपूर और अन्य कार्यकर्ताओं ने विधानसभा के
सामने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) के साथ मिलकर पुतला जलाया।
इसके अलावा उ0 प्र0 के सोनभद्र के अनपरा, ओबरा औद्योगिक क्षेत्रों और ब्लाक
मुख्यालयों, चंदौली, वाराणसी, बदायंू, सम्भल, गोण्ड़ा, बस्ती, मिर्जापुर,
गाजीपुर आदि जनपदों, बिहार के जहानाबाद, अरवल और हरियाणा के फरीदाबाद समेत
देश के तमाम केन्द्रों पर मोदी सरकार का पुतला जलाकर सरकार से तत्काल इस
मूल्यवृद्धि को वापस लेने की मांग की है। यह जानकारी आल इण्डिया पीपुल्स
फ्रंट (आइपीएफ) के राष्ट्रीय संयोजक अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने आज प्रेस को
जारी अपनी विज्ञप्ति में दी।
अखिलेन्द्र ने बताया कि मोदी सरकार
मनमोहन सरकार की सच्ची वारिस है और उसी की तरह जनता को कड़वी दवा के नाम पर
जहर देकर मार डालना चाहती है। कारपोरेट मुनाफे के लिए यह सरकार भी जनता के
विरुद्ध युद्ध में उतरी हुई है। रेल किराए में वृद्धि का यह फैसला महंगाई
की मार से पहले से ही कराह रही जनता पर और बोझ बढायंेगा। उन्होंने कहा कि
अभी संसद में बजट और रेल बजट आना ही था उससे पहले ही अलोकतांत्रिक तरीके से
रेल के किराए में वृद्धि कर कारपोरेट के अच्छे दिनों के लिए यह सरकार
पूर्ववर्ती सरकार की तरह ही संसदीय लोकतंत्र का मखौल उड़ा रही है। बेशर्मी
की हद यह है कि जिस महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी पैदा करने वाली
नीतियों के खिलाफ पैदा हुए गुस्से के कारण यह सरकार सत्ता में आयी आज उसी
जनादेश का अपमान करते हुए भाजपाई कह रहे कि हम तो पिछली सरकार के फैसले को
लागू कर रहे हैं। उन्होंने सरकार से तत्काल अपने इस जनविरोधी फैसले को वापस
लेने की मांग की।

दिनकर कपूर
संगठन प्रभारी
आल इण्डिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) उ0 प्र0।

Wednesday 4 June 2014

महिलायों पर बलात्कार और पुलिस - एस.आर.दारापुरी



महिलायों पर बलात्कार और पुलिस
एस.आर.दारापुरी, आई.पी.एस (से.नि.)   
हाल में बदायूं में दो दलित लड़कियों के साथ बलात्कार और हत्या के मामले में पुलिस की कार्रवाही न केवल अपने कर्तव्य के प्रति लापरवाही बल्कि अपराध में उनकी संलिप्तता को भी दर्शाती है. उपलब्ध जानकारी के अनुसार दोनों लड़कियों के ग़ायब होने की सूचना पुलिस को रात में ही प्राप्त हो गयी थी. यदि पुलिस ने उस पर तुरंत कार्रवाही शुरू कर दी होती तो शायद दोनों लकड़ियों की जान बच जाती. परन्तु पुलिस की लापरवाही और मिली भगत की परिणति दो मासूम लड़कियों का बलात्कार और हत्या में हुयी.
यह भी सर्वविदित है कि पुलिस अपराधों की प्रथम सूचना दर्ज करने में हद दर्जे की हीलाहवाली करती है जिस के गंभीर परिणाम होते हैं जैसा कि बदायूं वाली घटना में हुआ. पुलिस ऐसा कई कारणों से करती है. पुलिस के इस आचरण के लिए केवल थाना स्तर के कर्मचारी ही नहीं बल्कि  उच्च अधिकारी जहाँ तक कि मुख्य मंत्री तक भी जिम्मेवार होते हैं. ऐसा इसी लिए होता है कि राजनीतिक कारणों से हरेक मुख्य मंत्री अपने शासनकाल में पूर्व सरकार की अपेक्षा अपराध के आंकड़े कम करके दिखाने की कोशिश करता है. अधिकतर पुलिस से  सरकार की यह अपेक्षा गुप्त होती है परन्तु होती ज़रूर है.  
वर्तमान में पुलिस की कार्यकुशलता का मूल्यांकन अपराध के आंकड़ों के आधार पर होता है न कि क्षेत्र में वास्तविक अपराध नियंतरण एवं शांति व्यवस्था के आधार पर. इसी लिए पुलिस का सारा ध्यान आंकड़ों को फिट रखने में ही लगा रहता है. इस का सब से आसान तरीका अपराधों का दर्ज न करना होता है. यह भी सर्वविदित है कि विभिन्न कारणों से अपराध का ग्राफ हमेशा ऊपर की ओर बढ़ता है न कि नीचे की ओर. हाँ इतना ज़रूर है कि सक्रिय एवं दक्ष पुलिस अपराध को कुछ हद तक नियंतरण में रख सकती है परन्तु इस में बहुत बड़ी कमी लाना बहुत मुश्किल है. इसी लिए अपराध के सरकारी आंकड़े कुल घटित अपराध का बहुत छोटा हिस्सा ही होते हैं. अपराध के आंकड़े कम रखने में पुलिस का भी निहित स्वार्थ है. इस से एक तो उनका काम हल्का हो जाता है. दूसरे इस में भ्रष्टाचार का स्कोप भी बढ़ जाता है.
आम जनता की पुलिस से यह अपेक्षा रहती है कि उन की रिपोर्ट तत्परता से लिखी जानी चाहिए और उस पर त्वरित कार्रवाही हो. ऐसा तभी संभव है जब सरकार द्वारा थाने पर स्वतंत्रता से अपराध दर्ज करने की छूट दी जाये. आज कल तो सत्ताधारी लोग थाने पर रिपोर्ट लिखने अथवा न लिखने में भी भारी दखल रखते हैं. जिस मामले में सरकार चाहती है रिपोर्ट दर्ज होती है जिस में नहीं चाहती वह दर्ज नहीं होती है. इसी कारण से जिन मामलों में पुलिस वाले रिपोर्ट दर्ज न करने के दोषी भी पाए जाते हैं जैसा कि बदायूं वाले मामले में भी है उन में भी पुलिस वालों के खिलाफ कोई कार्रवाही नहीं होती. दलित और कमज़ोर वर्ग के मामलों में तो यह पक्षपात और लापरवाही खुले तौर पर होती है.
महिलायों के मामलों में थाने पर पुलिस का व्यवहार शिकायत करता को हतोउत्साहित करने एवं टालने वाला होता है. यदि कोई व्यक्ति थाने पर अपनी बेटी की गुमशुदगी की रिपोर्ट करने जाता है तो पुलिस रिपोर्ट न लिख कर उस के घर वालों को उसकी तलाश करने की हिदायत दे कर चलता कर देती है.  इसी प्रकार बलात्कार के मामलों में तुरंत मुकदमा दर्ज न करके पुलिस दोषी पक्ष को बुला कर वादी से समझौता करने के लिए दबाव डालती है. इस प्रक्रिया में कई बार मुकदमा दर्ज होने और डाक्टरी होने में काफी विलम्ब  हो जाता है जिस से डाक्टरी जांच का परिणाम भी कुप्रभावित हो जाता है. पुलिस के कार्यकलाप में जातिभेद भी काफी हद तक हावी रहता है. आम लोगों का कहना है कि थाने पर वादी और दोषी की जात देख कर कार्रवाही होती है. वर्तमान में पुलिस बल का जातिकरण और राजनीतिकरण इस आरोप को काफी बल देता है.
अतः महिलायों पर बलात्कार एवं अन्य अपराधों के त्वरित पंजीकरण एवं प्रभावी कार्रवाही हेतु सब से पहले ज़रूरी है कि थाने पर अपराधों का स्वतंत्र रूप से पंजीकरण हो जिस के लिए सरकार द्वारा पुलिस को पूरी छूट दी जानी चाहिए. इस के लिए अपराध पंजीकरण हेतु एक अलग शाखा बनाने पर भी विचार किया जा सकता है. दूसरे अपराध छुपाने और दर्ज न करने वाले पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाही होनी चाहिए. तीसरे पुलिस कर्चारियों को महिलायों, बच्चों, दलितों और समाज के कमज़ोर वर्गों के प्रति संवेदनशील बनाने हेतु निरंतर प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. इन सब से बढ़ कर ज़रूरत है सुप्रीम कोर्ट द्वारा आदेशित किये गए पुलिस सुधार को लागू करने की ताकि पुलिस को कार्य स्वतंत्रता मिल सके और वह सत्ताधारियों की बजाये जनता के प्रति जवाबदेह बन सके. तभी वर्तमान की शासक वर्ग की पुलिस को जनता की पुलिस में रूपांतरित करना संभव हो सकेगा.   
      

महिलाओं पर बलातकार और जाति - एस आर दारापुरी



 महिलाओं पर बलातकार और जाति
एस आर दारापुरी
हाल में उत्तर प्रदेश के बदायूं जनपद में अति पिछड़ी जाति की दो नाबालिग बच्चियों के साथ बलातकार और हत्या की घटना ने कई सवाल खड़े किये हैं. इस में एक तो पुलिस की लापरवाही और संलिप्तता और दूसरे अधिकतर बलात्कारों में दलित और समाज के कमज़ोर तबकों की महिलायों और लकड़ियों को ही शिकार बनाया जाना है. इस में एक ओर जहाँ पुलिस की भूमिका पर प्रशन उठ रहे हैं वहीँ दूसरी ओर ऐसे अपराधों में हमारे समाज की जाति संरचना भी काफी हद तक जिम्मेवार दिखाई देती है.
इस घटना में पुलिस की लापरवाही और संलिप्तता के साथ साथ पुलिस का जाति विशेष के प्रति पूर्वाग्रह भी दिखाई देता है. इसके लिए पुलिस का जातिकरण और राजनीतिकरण भी काफी हद तक जिम्मेवार है. जैसा कि अब तक उभर कर आया है कि जब मृतक लड़की का पिता पुलिस के पास लड़कियों को अगवा किये जाने की शिकायत लेकर गया तो सब से पहले पुलिस वालों ने उसकी जात पूछी. जब उस ने अपनी जाति बताई तो पुलिस वालों ने उस का अपमान किया और उसका मज़ाक उड़ाया तथा उस की शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं की जिस का नतीजा यह हुआ कि दोनों लड़कियों का बलात्कार करके उन्हें पेड़ पर लटका दिया गया.
पुलिस के इस व्यवहार से यह उभर कर आया है कि थाने पर पुलिस का व्यवहार समाज के सभी वर्गों के प्रति समान नहीं है. वहां पर भी समाज के कमज़ोर तबकों के साथ जातिभेद किया जाता है. काफी लोगों का कहना है कि थाने पर जाति देख कर कार्रवाई की जाती है. इस का मुख्य कारण यह है कि हमारी पुलिस की संरचना भी जाति तथा सम्प्रदाय निरपेक्ष नहीं है. इस के इलावा पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों के व्यक्तिगत जाति तथा सम्प्रदाय के पूराग्रह भी काफी हद तक उनकी कार्यप्रणाली को प्रभावित करते हैं. अतः यह ज़रूरी है कि एक तो पुलिस में सभी जातियों और सम्प्रदायों का उचित प्रतिनिधित्व होना चाहिए और दूसरे पुलिस कर्मचारियों को इन वर्गों और महिलायों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाने के लिए प्रभावी प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. इस सम्बन्ध में जानबूझकर गलती करने वालों को अनुकरणीय दंड दिया जाना चाहिए. इस के अतिरिक्त पुलिस को बाहरी दबावों से मुक्त करने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा आदेशित पुलिस सुधार लागू करने के लिए जन दबाव पैदा किया जाना चाहिए.
दलित और कमज़ोर वर्गों की महिलायों पर सब से अधिक बलात्कार ग्रामीण क्षेत्र में होते हैं. यह इस लिए है कि हमारी ग्रामीण समाज व्यवस्था आज भी सामंती और जाति आधारित है. ग्रामीण क्षेत्र में आज़ादी के बाद पुराने सामंतों की जगह नए सामंत पैदा हो गए हैं जो न केवल आर्थिक तौर पर मज़बूत हैं बल्कि उन्हें राजनैतिक और प्रशासनिक सत्ता का भी पूरा सहयोग रहता है. गाँव में यह सामंत पूरी तरह स्वेच्छाचारी आचरण करने के लिए स्वतन्त्र हैं. इसी लिए वे दलित और कमज़ोर वर्ग की औरतों और लड़कियों का निडर हो कर यौन शोषण करते हैं क्योंकि इन वर्गों की शिकायतों की पर थाने पर अथवा अन्यत्र वैसी सुनवाई नहीं होती जैसी कि कानून के अनुसार अपेक्षित है. दलित और अन्य कमज़ोर वर्ग के लोग इन सामंतों की ज्यादितियों का उचित प्रतिरोध इसी लिए भी नहीं कर पाते क्योंकि वे सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक तौर पर कमज़ोर हैं और उन्ही सामंतों पर काफी हद तक आश्रित भी हैं.
गाँव में होने वाले बलात्कार के मामलों के विश्लेषण से यह भी पाया गया है कि ऐसी घटनाएँ अधिकतर उस समय होती हैं जब महिलाएं शाम/रात को शौच निवृति के लिए जाती हैं. यह बहुत शर्म की बात है कि हमारे देश में लगभग 50% घरों में शौचालय ही नहीं हैं जिस के लिए औरतों को घर के बाहर जाना पड़ता है जहाँ पर इस प्रकार की घटनाओं की अधिक सम्भावना रहती है. अतः अगर हम अपने आप को एक सभ्य देश कहलाना चाहते हैं तो हमें हरेक घर में शौचालय की व्यवस्था करनी चाहिए. मेरे विचार में नयी सरकार को इस काम को राष्ट्रीय अभियान के तौर पर चलाना चाहिए और आगामी बजट में इस के लिए विशेष प्रावधान करना चाहिए.
अतः दलित और समाज के कमज़ोर तबकों की महिलायों का यौन शोषण और उन पर होने वाले  अत्याचारों को रोकने के लिए यह ज़रूरी है कि इन वर्गों को उचित कानूनी संरक्षण मिले. पुलिस को सामंतों और राजनेताओं की तरफदारी करने की बजाये जनता के प्रति उत्तरदायी बनाया जाये जिस के लिए पुलिस सुधारों का लागू होना बहुत ज़रूरी है. इस के साथ साथ दलित और समाज के अन्य कमज़ोर तबकों का सशक्तिकरण किया जाये ताकि उन की सामंतों पर निर्भरता ख़तम हो सके. इस के लिए भूमि सुधारों का लागू होना बहुत ज़रूरी है. इस के लिए हमें डॉ. आंबेडकर के “जातिविहीन एवं वर्गविहीन समाज की स्थापना” के लक्ष्य को साकार करना होगा.   
  

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