भारत को आर्थिक संकट से उबारने के लिए जिस नयी आर्थिक-औद्योगिक नीति को लागू किया गया उसने आर्थिक संकट को और गहरा कर दिया। भुगतान का संकट एक बार फिर चर्चा में है। सम्भवतः उससे निपटने के लिए एफडीआई की जोरदार वकालत की जा रही है। संक्षेप में फर्जी अर्थव्यवस्था ;थ्पबजपजपवने मबवदवउलद्ध का यह औपनिवेशिक विकास का रास्ता विनाशकारी साबित हो रहा है। सट्टा पंूजी पर आधारित इस अर्थव्यवस्था ने बड़े पैमाने पर उत्पादक शक्तियों का विनाश किया है। खेती-किसानी खासकर छोटे-मझोले किसान लधु कुटीर उद्योग तबाह हो गए है। नया कोई बड़ा एवं रोजगार का क्षेत्र नहीं पैदा हुआ। बेकारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, उत्पादन से अलगाव ने इस नयी अर्थव्यवस्था में नया अयाम ग्रहण किया है। सभी जानते है कि कैसे इन बीस वर्षो में राष्ट्रीय सम्पत्ति की लूट करके कारपोरेट, अफसर, नेता, आपराधियों के गठजोड़ ने अकूत सम्पत्ति बना ली है। जाहिरा तौर पर इसका प्रभाव राजनीति में भी भोड़े और क्रूर ढ़ग से दिख रहा है। अम्बानी बंधु ही नहीं रेड्डी और पोन्टी चड्ढा जैसे लोग ने भी जनता की सम्पदा की लूट के बदौलत राजनीतिक दलों और उनकी सरकारों को अपनी दुकान बना लिया है। कर्नाटक और आंध्रा की राजनीति को समझने के लिए रेड्डी बंधुओं और उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड़ और पंजाब की राजनीति को समझने के लिए चड्ढा जैसों के कारोबार को समझना जरूरी है। इसी तरह अन्य राज्यों की राजनीति को समझने के लिए इस तरह के कारोबारियों की आर्थिक गतिविधियों को समझना बेहद जरूरी है। ऊपर से लेकर नीचे तक इस तरह के लोगों की राजनीति और प्रशासन पर गहरी पकड़ है। शासन-प्रशासन पर उनकी पकड़ है ही साथ ही नेताओं और अधिकारियों का प्रभावशाली हिस्सा उनके व्यापारजगत का शेयरहोल्डर भी है और हिस्सेदार भी है। अपराध, दंगा-फसाद, साम्प्रदायिक और पहचान की राजनीति के नाम पर जातिवाद की राजनीति की संचालक आर्थिक ताकत भी ऐसी ही पूंजी बनती है।
बहरहाल देश एक संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। शासक दलों ने जहां नयी आर्थिक-औद्योगिक नीति को स्वीकार कर लिया है वहीं उसके दुष्प्रभाव के खिलाफ जगह-जगह आंदोलन भी चल रहा है। इसमें भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन सबसे चर्चित है। इसी पृष्टभूमि में हमें जनराजनीति, बदलाव की राजनीति की स्थिति को भी समझना होगा। जनराजनीति के सुसंगत वाहक आमतौर पर कम्युनिस्ट माने जाते है। वामपंथी दलों का चाहे जो भी दावा हो सच्चाई यह है कि जनता की चैतरफा तबाही, राष्ट्रीय सम्पदा की अकल्पनीय लूट और महाघोटालों के इस दौर में भी वामपंथी आंदोलन मजबूत नहीं हुआ है और दक्षिणपंथ की दो बड़ी ताकतें कांग्रेस और भाजपा के ही इर्द-गिर्द राष्ट्रीय राजनीति धूम रही है। निकट भविष्य में किसी उसूली तीसरे मोर्चे की सम्भावना न देखते हुए वामपंथी दलों ने वाम जनवादी विकल्प को मजबूत करने की बात की है। सभी वाम दलों का मोर्चा भी यदि बन जाएं तो भी सवाल हल होता नहीं दिखता। वामपंथी दलों को सैद्धांतिक गतिरूद्धता को तोड़ना पड़ेगा। कम्युनिस्ट पार्टी और उसके जनसंगठन जरूरी होते हुए भी बड़ी राजनीतिक गोलबंदी के लिए पर्याप्त नहीं है। उन्हें जनराजनीतिक पार्टी के निर्माण के कार्यभार को अपने हाथ में लेना होगा। कम्युनिस्ट पार्टी को पार्टी, जनसंगठन और मोर्चे की बनी बनायी धारणाओं तक सीमित रहना विकासमान परिस्थिति के अनुकूल नहीं है। जनवाद को केन्द्र में रखते हुए जनराजनीतिक मंच का निर्माण कम्युनिस्ट सिद्धांत का निषेध नहीं बल्कि उसका विकास है। खासकर भारत जैसे बहुलता वाले देश में जहां अभी प्राक पंूजीवादी सम्बंधों का गहरा प्रभाव है और वर्गीय स्वरूप भी पूरी तरह उभर कर नहीं आया है, वहां उत्पीडि़त समुदाय की राजनीतिक आकांक्षा को ध्यान में रखते हुए भी इस तरह के मंच की जरूरत है। जनता के विभिन्न तबकों यहां तक की मजदूर वर्ग की सोच पर भी प्राक्-आधुनिक चेतना का गहरा असर है जिसे शासक दलों द्वारा प्रोत्साहित अस्मिताओं/पहचान की राजनीति ने और भी धनीभूत किया है। किसान, सूचना प्रौद्योगिकी, मीडि़या और पर्यावरण आदि से जुड़े नए तबकों का स्वाभाविक रूझान लोकतांत्रिक, खुली पार्टी की तरफ होता है। जनपक्षीय ताकतों को इन तबकों को शासक दलों के प्रभाव से जीतने के लिए कड़ी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ता है। इस कार्यभार को पूरा करने के लिए एक जनवादी पार्टी बेहतर औजार साबित हो सकती है। भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में बहुवर्गीय पार्टी ‘मजदूर किसान पार्टी‘ का सफल प्रयोग हो भी चुका है। यहां पार्टी शब्द का प्रयोग एकल वर्गीय पार्टी के बतौर नहीं बल्कि जनता के विभिन्न वर्गो/तबकों के बहुवर्गीय मोर्चे की लोकप्रिय संज्ञा के बतौर किया जा रहा है।
जनराजनीति की विचारधारा आधारित अन्य लोकतांत्रिक शक्तियों का बेहद बुरा हाल है, चाहे वह दलित आंदोलन की हो या समाजवादी, गांधीवादी आंदोलन की। काशीराम की ‘बहुजन राजनीति‘ जो उन्हीं के समय में ‘सर्वजन राजनीति‘ हो गयी थी, में भले कुछ लोगों को डा0 अम्बेडकर की राजनीति का उच्चतर रूप दिखे, वह जनराजनीति की परिधि में नहीं आती है। याद रहे अमेरिका के ब्लैक पैंथर तथा भारतवर्ष में नक्सल आंदोलन से प्रभावित दलित पैथंर आंदोलन में मौजूद बदलाव के मनोभाव और कांग्रेस के दलितों में गिरते प्रभाव को ध्यान में रखते हुए काशीराम बामसेफ, डीएस-4 का प्रयोग करते बहुजन समाज पार्टी निर्माण तक पहुंचे थे, जो कारपोरेट राजनीति का ही एक रूप था। दलितों को संघर्ष और बदलाव की राजनीति से दूर रखकर वोट बैंक के बतौर प्रयोग किया गया। मुलायम की राजनीति और जयप्रकाश आंदोलन के अनुयायियों की राजनीति का समाजवादी मूल्यों की राजनीति से क्या वास्ता? दलित और समाजवादी आंदोलन को भी आज के दौर में नए सिरे से परिभाषित करना होगा। पुराने विचारों पर कुछ व्यक्तियों के नाम पर नारेबाजी का दौर खत्म हो गया है।
बहरहाल विचारधारा आधारित राजनीति के संकट के साथ-साथ मुद्दा आधारित जो आंदोलन अस्सी के दशक में दिखें वह आज बिखर गए है। सत्तर के दशक तक राजनीति में विचारधारा की बहस बड़ी प्रभावी रहती थी। विचारधारा के टकराव राजनीति और संगठन का स्वरूप तय करते थे। अस्सी के दशक में नक्सलवादियों के अलावा जो आंदोलन, खासकर किसान आंदोलन प्रभावी रहा वह गैर राजनीतिक कहने पर गर्व करता था, विचारधारा की बात कौन करें। साठ और सत्तर के दशक में ‘रैडिकल बदलाव‘ की बात थी, अस्सी में ‘मुद्दों और हिस्सेदारी‘ की बात प्रमुख हो गयी। शरद जोशी, टिकैत, भूपेन्द्र सिंह मान, नजुंडास्वामी के किसान आंदोलन का आकार बड़ा था। राजनीतिक अवसरवाद का शिकार होते हुए यह आंदोलन आज मृतप्राय है। इनका उपयोग भूमि अधिग्रहण कानून के खिलाफ हाल के वर्षो में चले आंदोलनों के विरूद्ध ही हुआ है। बाद के दौर में कांग्रेस विरोध में साम्प्रदायिक फासीवाद और सामाजिक न्याय की जो तात्कालिक एकता बनी उससे दीर्धकालीन नुकसान भी हुआ। बहरहाल अभी का दौर ‘विकास और लोकतंत्र‘ की राजनीति के दौर के रूप में परिभाषित हो रहा है। इसी दौर में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन-जनलोकपाल कानून के लिए, एक बड़ी चर्चा का विषय बना। विदेशी बैंकों में जमा काले धन को देश में लौटाने के नारे के साथ बाबा रामदेव का विलय संघ सम्प्रदाय में हो गया, अन्ना टीम जनलोकपाल कानून के लिए कमर कस रही है और उनके अनुयायी अरविन्द केजरीवाल अपनी टीम के साथ नयी पार्टी की धोषणा करने जा रहे है। कुछ लोग उनमें कारपोरेट राजनीति का विकल्प देख रहे है। सोनिया गांधी की सलाहकार परिषद् अब उनके लिए अनुपयोगी हो गयी है क्योकि मनमोहन के सुधारों पर पर्दा नहीं डाल पा रही है। अतीत के ऐसे ही अन्य व्यक्तित्वों की तरह अरविन्द केजरीवाल शून्य को भरने वाले नए अवतार के रूप में उभरने की कोशिश कर रहे है। याद रहे अन्ना, रामदेव और केजरीवाल के पहले राजनीतिक विर्मश में ‘माओवाद‘ आ गया था जिसकी मुखर प्रवक्ता अरूंधती राय हो गयी थी। यह नया एनजीओं ग्रुप जिसके बारे में अरूंधती लिखती है कि फोर्ड फाउंडेशन पैसा देता है, जब से चर्चा में आया है, उनकी राजनीति पर कम चर्चा हो रही है। यह कैसे है कि भ्रष्टाचार पर विश्व बैंक और अरविंद केजरीवाल की पहल एक विजन पर है? ग्रामसभाओं को सभी अधिकार देने वाले सामंती अवशेष के बारें में चुप्पी क्यो रखते है। यह ऐसे कुछ प्रश्न है जो लोगों के दिमाग में है। सट्टा पूंजी, अपराध, भ्रष्ट नेता, अफसर गठजोड़ जिस देश की राजनीति में ऊपर से नीचे तक खूंखार स्वरूप में मौजूद हो, वहां लोकतांत्रिक और संघर्षशील ताकतों के प्रति महज औपचारिक रूख ‘बदलाव की राजनीति‘ के प्रति गम्भीरता का अभाव दिखता है।
बहरहाल बदलाव की राजनीति को कारपोरेट राजनीति का विकल्प बनाने के लिए एक बड़े लोकतांत्रिक मंच की जरूरत है जो उन सभी ताकतों से एकताबद्ध हो जिनसे एकता बनाना सम्भव हो। व्यापक वाम जनवादी ताकतों से एकताबद्ध हुए बिना विकल्प की राजनीति की बात हवाई है। रोजगार, भूमि अधिग्रहण कानून का विरोध, लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों पर राष्ट्रीय पहल, कुछ चुनिंदा प्रदेशों को लेकर लेने की जरूरत है।
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