Sunday, 18 August 2013

जनहित याचिका

आल इण्डिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ)
पत्रांकः.............. दिनांक: 12/08/2013
सेवा में,
माननीय मुख्यमंत्री
उ0 प्र0 सरकार, लखनऊ।
विषयः जनहित याचिका सं. 27063/2003, आदिवासी वनवासी महासभा बनाम भारत संघ द्वारा सचिव व दस अन्य में माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिए आदेश दिनांक 05 अगस्त 2013 के अनुपालन में अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 (2007) के संशोधन नियम 2012 के अनुसार जिले, तहसील व ग्राम सभाओं में वनभूमि पर प्रस्तुत दावों के सम्बन्ध में विधिक प्रक्रिया अपनाएं जाने हेतु निर्देश देने संदर्भ मेंः

महोदय,

आपके संज्ञान में लाना है कि आल इण्डि़या पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) से सम्बद्ध आदिवासी वनवासी महासभा के द्वारा माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद में अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 (2007) के अनुपालन में उ0 प्र0 शासन व जिलास्तरीय प्रशासन द्वारा विधि के प्रतिकूल अपनाई गयी प्रक्रिया के विरूद्ध जनहित याचिका सं. 27063/2003 दाखिल की गयी थी। जिसमें दिनांक 05 अगस्त 2013 को निर्णय देते हुए माननीय मुख्य न्यायाधीश की खण्ड़पीठ ने अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 (2007) व संशोधन अधिनियम 2012 के अनुसार जिले, तहसील व ग्राम सभाओं में वनभूमि पर प्रस्तुत दावों के सम्बन्ध में विधिक प्रक्रिया अपनाएं जाने और ग्रामसभाओं में दावा करने को कहा है, जिससे कि वनाधिकार समितियां नियमतः संस्तुति कर सकें और यदि कोई दावेदार असंतुष्ट है तो संशोधित नियम 2012 के प्रावधानों के तहत राहत के लिए अगली कार्रवाई कर सकता है। (संलग्नक-1)
इस सम्बंध में निम्नलिखित तथ्य हम आपके संज्ञान में लाना चाहेगें-
1. यह कि हमें सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत प्रमुख सचिव (समाज कल्याण) उ0 प्र0 शासन के निर्देश पर निदेशक, अनुसूचित जनजाति विकास, उ0 प्र0 द्वारा अवगत कराया गया कि प्रदेश के 13 जिलों में अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 (2007) के तहत 92433 दावों में से 73416 दावों को निरस्त किया गया। (सलंग्नक-2) उपरोक्त अधिनियम की धारा 6 का उल्लंधन करते हुए निरस्त किये 73416 दावों में अधिकांश दावेदारों को सूचित नहीं किया गया और सुनवाई का युक्ति युक्त अवसर भी प्रदान नहीं किया गया। जिन दावों को स्वीकार किया गया उसमें वनाधिकार समितियों द्वारा संस्तुति किए गए रक्बे को भी बड़े पैमाने पर घटा दिया गया है।
2. वनाधिकार समितियों के संस्तुति के बाबजूद इतने बड़े पैमाने पर अनुसूचित जनजाति और परम्परागत वन निवासियों के दावों का निरस्तीकरण अधिनियम की मूल भावना के विरूद्ध है। जिसमें यह कहा गया है कि ‘वन में पीढियों से रह रहे जिन लोगों के अधिकारों को दर्ज नहीं किया गया है उनके वन अधिकारों की मान्यता के लिए यह अधिनियम बनाया गया है।‘ इस अधिनियम के अधीन लोग अपने अधिकारों का सम्पूर्ण रूप से लाभ ले सकें इसके लिए समय-समय पर नियम-उपनियम बनाए गए है। अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) संशोधन नियम 2012 इसी कड़ी में अद्यतन नियम है।
(2)
जिसके 12-क के बिदुं (6) में कहा गया है कि ‘‘उपखण्ड़स्तर समिति या जिला स्तर समिति, यदि आवश्यक समझे, तो ग्रामसभा के संकल्प या सिफारिशों के अपूर्ण पाए जाने या प्रथम दृष्टया अतिरिक्त परीक्षण की अपेक्षा होने की दशा में उसे उपांतरित या खारिज करने की बजाए पुर्नविचार करने के लिए ग्रामसभा को दावे को प्रतिप्रेषित करेगी।‘‘ समस्त दावे ग्रामसभाओं की विधिक रूप से गठित वनाधिकार समितियों द्वारा स्वीकृत थे, जिन्हें जिलास्तरीय कमेटी व उपखण्ड़ स्तरीय कमेटी ने मनमानेढ़ग से खारिज कर दिया। यहीं नहीं कई जगहों पर वनाधिकार समितियों की संस्तुतियों में भी हेराफेरी करते हुए कहा गया कि वनाधिकार समितियों ने दावो को अस्वीकृत कर दिया है। बताने की जरूरत नहीं है कि यदि वनाधिकार समितियां किसी दावे को निरस्त करती तो वह उसे उपखण्ड़स्तर की समिति में उसे भेजती ही क्यों। वनाधिकार समितियों ने यह भी शिकायत की है कि उनके द्वारा प्रेषित ढेर सारे दावो के प्रपत्र को उपखण्ड़स्तर की समिति ने स्वीकार भी नहीं किया। स्वतः स्पष्ट है कि उपखण्ड़ समिति और जिलास्तरीय समिति ने अपने विधिक कार्य को उचित ढ़ग से सम्पादित नहीं किया।
3. यह भी अवगत करा दे कि उपरोक्त कानून के संदर्भ में माननीय उच्चतम न्यायालय ने सिविल रिट याचिका 180/2011 उड़ीसा माइनिंग कारपोरेशन बनाम पर्यावरण एवं वन मंत्रालय में दिनांक 18 अप्रैल 2013 दिए आदेश में ग्रामसभाओं के नियमन के प्राधिकार को रेखांकित किया है।
4. यह कि अनुसूचित जन जाति और अन्य परम्परागत वन निवासी वन अधिकारों की मान्यता अधिनियम 2006 (2007) व संशोधन नियम 2012 मुख्य रूप से वनवासियों को भूमि अधिकार जो कि संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुक्रम में संरक्षित है, को प्रदान करने के लिए ही बनाया गया है। जिसमें ग्रामसभाओं को वनाधिकार समितियों के अनुमोदन पर वन में विभिन्न प्रकार से निवास करने और अन्य सुविधाओं को जो कि अधिनियम की धारा 3 व 4 में वर्णित है, का अधिकार दिया गया है।
5. माननीय उच्च न्यायालय के आदेश के बाद नौगढ़ तहसील चकिया जनपद चंदौली और बभनी तहसील दुद्धी जनपद सोनभद्र की कुछ ग्राम वनाधिकार समितियों ने उपखण्ड़ समिति के अधिकारियों से प्रपत्र देने के संदर्भ में सम्पर्क किया तो उन्हें यह बताया गया कि न केवल उपखण्ड स्तरीय कमेटी बल्कि जिला और राज्यस्तरीय कमेटी को भंग कर दिया गया है। ऐसी स्थिति में बिना समितियों के पुर्नबहाली माननीय उच्चन्यायालय के आदेश का अनुपालन होना सम्भव नहीं है।
महोदय,
अतः निवेदन है कि उ0 प्र0 के समस्त जिलों में निरस्त किए गए वनाधिकार अधिनियम के तहत प्रस्तुत दावों पर व्यथित व्यक्ति और ग्रामसभाओं की वनाधिकार समितियों के दावों के सम्बंध में माननीय उच्च न्यायालय के आदेश के आलोक में अनुसूचित जन जाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 (2007) और संशोधन नियम 2012 के प्रावधानों के अनुसार विधिक प्रक्रिया के पालन के लिए उ0 प्र0 शासन द्वारा निर्देश जारी किए जाएं और शासन द्वारा भंग की गयी वनाधिकार समितियों को पुर्नबहाल किया जाएं।
यह भी अवगत हो कि आजादी के साठ साल बाद भी उ0 प्र0 में कोल, धागंर जैसी आदिवासी जातियों को आदिवासी का दर्जा नहीं मिला और जिन गोड़, खरवार जैसी आदिवासी जातियों को दर्जा दिया भी गया, माननीय उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाबजूद उनके लिए चुनाव में अभी तक सीटें आरक्षित नहीं की गयी है। वनाधिकार कानून के लाभ से यदि उन्हें वंचित रखा गया, उनके साथ धोर अन्याय होगा।
सादर!
भवदीय
(दिनकर कपूर)
संगठन प्रभारी
आल इण्डिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ)
उत्तर प्रदेश।

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