मेहनतकशों को करना होगा राजनीतिक प्रतिवाद
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दिनकर कपूर, वर्कर्स फ्रंट
मोदी सरकार का
मेहनतकश विरोधी क्रूर और अमानवीय चेहरा आप सबके सामने है। इस पर बताने की जरूरत
नहीं है रोज ब रोज एक से एक दर्दभरी दास्तानें आप देख और सुन ही रहे हैं। मजदूरों
का दुर्धटनाओं में मरना, घायल होना, गर्भवती महिलाओं का सड़क पर बच्चा पैदा करना, रहने और
खाने तक की व्यवस्था करने में सरकार की विफलता सब कुछ आम बात है। वास्तव में सरकार
ने मजदूरों को बेसहारा छोड़ दिया है और अपनी जिम्मेदारी से भाग खड़ी हुई है। बहरहाल
ताजा मामला यह है कि केन्द्र सरकार ने चौथे चरण के लाकडाउन में मजदूरों व
कर्मचारियों के काम न करने की दशा में वेतन भुगतान पर रोक लगा दी है।
मामले को समझने
के लिए हम आपको बताना चाहेंगे कि दरअसल सुप्रीम कोर्ट में फिक्कस पैक्स प्राइवेट
लिमिटेड़ की तरफ से लाकडाउन अवधि का वेतन न देने के लिए एक याचिका डाली गयी थी। जिस
पर 15 मई को सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की। इस सुनवाई के बाद
तमाम समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों द्वारा यह समाचार प्रकाशित किया गया कि माननीय
उच्चतम न्यायालय ने लाकडाउन अवधि में मजदूरों के वेतन भुगतान पर रोक लगा दी है।
जबकि सच्चाई यह है कि 15 मई को हुई सुनवाई के बाद सुप्रीम
कोर्ट ने मात्र नोटिस जारी किया है और वेतन पर रोक लगाने का कोई आदेश नहीं दिया
है। 29 मार्च, 2020 की भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना जिसे सुप्रीम कोर्ट
में चुनौती दी गयी है में स्पष्ट कहा गया था कि कारखाना, दुकान
अथवा वाणिज्यिक प्रतिष्ठान के प्रबंधक या स्वामी द्वारा लाकडाउन अवधि में श्रमिकों
का वेतन भुगतान नहीं किया जाता तो महामारी अधिनियम की घारा 3
में प्रदत्त शक्तियों का उपयोग करके भारतीय दण्ड़ संहिता की धारा 188 के तहत एफआईआर दर्ज की जाए। इसी आधार पर उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों
ने भी आदेश दिए थे। हालांकि यह भी सच है कि इसका अनुपालन बेहद कम ही हुआ और अपने
स्वभाव के अनुरूप आरएसएस-भाजपा की सरकारों ने इस आदेश का अनुपालन नहीं करने का
संदेश श्रम विभाग को दिया था।
अब 17 मई को भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा जारी
अधिसूचना में इस आदेश को खत्म कर दिया गया है। सरकार अभी कह रही है कि लाकडाउन के
दौरान विशेषकर बैंक, बीमा, केन्द्रीय व
राज्य कर्मचारियों की मात्र 33 प्रतिशत ही उपस्थिति
कार्यालयों में करायी जाए, उद्योगों में दो तिहाई मजदूरों को
ही बुलाया जाए और सोशल दूरी का कड़ाई से अनुपालन हो। आदेश में यह भी कहा गया है कि
जो प्रतिष्ठान इसका अनुपालन नहीं करेंगे उनके मालिक व अधिकारी के विरूद्ध आपदा
अधिनियम 1897 की घारा 3 के तहत कड़ी
कार्यवाही की जायेगी। सवाल उठता है कि सरकार के इन आदेशों के कारण जो कर्मचारी या
मजदूर काम पर किसी दिन नियोजित नहीं होगा उसके वेतन का क्या होगा। सरकार के आदेश
पर विधिवेताओं का कहना है कि ऐसे कर्मचारियों व मजदूरों को वेतन का भुगतान नहीं
होगा। वर्कर्स फ्रंट ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में हस्तक्षेप करने का फैसला
किया है। हमने सरकार से यह भी कहा है कि छोटे-मझोले उद्योगों के सामने आए संकट के
मद्देनजर सरकार कर्मचारी भविष्य निधि (ईएसआई) से मजदूरों के वेतन का भुगतान कर
दें। मजदूरों के वेतन भुगतान का काम दुनिया के कई देशों की सरकारों ने किया भी है।
दूसरा मामला कल
उत्तर प्रदेश सरकार के अपर मुख्य सचिव वित्त विभाग संजीव मित्तल द्वारा दिया आदेश
है। कोविड़-19 के कारण प्रदेश में लाकडाउन
घोषित होने के फलरूवरूप उत्पन्न विशेष परिस्थिति में व्यय प्रबंधन एवं मितव्ययिता
के लिए दिशा-निर्देश विषयक इस शासनादेश में कहा गया है कि राज्य सरकार के राजस्व
में अप्रत्याशित कमी आयी है इसलिए वित्तीय वर्ष 2020-21 के
लिए निर्णय लिया गया है। आदेश के पहले बिंदु में कहा गया है कि केन्द्र की वित्तीय
मदद से चलने वाली योजनाओं में केन्द्र से धन प्राप्त होने पर ही धनराशि
आवश्यकतानुसार चरणों में उपलब्ध करायी जायेगी। इसका सबसे बुरा असर मनरेगा पर पड़ेगा
क्योंकि यह योजना पूर्णतया केन्द्र सरकार द्वारा संचालित है। अभी आपने देखा कि
कथित 20 लाख करोड़ के पैकेज में वित्त मंत्री ने मनरेगा में
महज 40 हजार करोड़ रूपए का आवंटन किया है। याद दिला दें कि
अपने बजट में इन्हीं वित्त मंत्री द्वारा मनरेगा में पिछले वर्ष खर्च के 72 हजार करोड़ में 11 हजार करोड़ की कटौती करके महज 61 हजार करोड़ रूपए ही आवंटित किया गया था। खुद सरकार की वेबसाइट के अनुसार
इस बजट में मात्र 9 दिन ही औसत काम एक मजदूर को मनरेगा में
मिल सका था। अब जब मजदूरी 202 रूपए कर दी गयी है तो स्वभाविक
है कि मनरेगा में काम का आवंटन और भी कम हो जायेगा। सोनभद्र, मिर्जापुर व चंदौली जहां हमारा सघन काम है वहां के प्रधानों, जनप्रतिनिधियों व ग्रामीणों द्वारा लगातार बताया जा रहा है कि सरकार के
आदेश के बाद हमने काम तो शुरू करा दिया है लेकिन एक माह बीत जाने के बावजूद अभी तक
मजदूरी का भुगतान नहीं हुआ है। इसलिए 2 करोड़ से ज्यादा
रोजगार देने की वित्त मंत्री और 22 लाख रोजगार देने की उत्तर
प्रदेश के मुख्यमंत्री की घोषणा महज लफ्फाजी है और जनता की आंख में धूल झोंकना है।
वित्त विभाग
द्वारा जारी इस आदेश के बिंदु संख्या दो और तीन में कहा गया है कि सभी विभागों
द्वारा उन्हीं योजनाओं को क्रियान्वित किया जाए जो अपरिहार्य हों। साथ ही बिंदु
संख्या तीन में तो किसी नई निर्माण परियोजना के शुरू करने पर रोक लगाते हुए कहा
गया है कि जो कार्य प्रारम्भ किए जा चुके हैं वही कार्य कराए जाएं। आदेश का बिंदु
संख्या चार कहता है कि कार्य प्रणाली में परिवर्तन, सूचना प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग आदि के कारणों से अनेक पद सरकारी विभागों
में अप्रासंगिक हो गए है इसलिए इन पदों को चिन्हित कर इन्हें समाप्त किया जाये और
जो कर्मचारी इन पर कार्यरत हो उन्हें अन्य विभागों में रिक्त पदों पर समायोजित
किया जाए। बिंदु संख्या पांच में नई नियुक्तियों पर पूर्णतया रोक लगाते हुए कहा
गया है कि आवश्यक कार्यो को आऊटसोर्सिंग से कराया जाए। यहीं नहीं कल निदेशक बाल
विकास एवं पुष्टाहार विभाग द्वारा प्रदेश में कार्यरत तीन लाख से ज्यादा आँगनवाडियों
व सहायिकाओं की सूची मांगी है जिनकी उम्र 62 साल से ज्यादा
है यानी सरकार ने इनकी छटंनी की तैयारी कर ली है। प्रदेश सरकार ने काम के घंटे
बारह करके 33 प्रतिशत श्रमिकों व कर्मचारियों की छटंनी का
फैसला किया था जिस पर हमारे हाईकोर्ट में हस्तक्षेप के बाद सरकार को बैकफुट पर आकर
आदेश वापस लेना पड़ा। अभी भी सरकार 38 में से 35 श्रम कानूनों को तीन साल तक स्थगित करने की कोशिश में लगी है लेकिन आज तक
वह इस सम्बंध में अध्यादेश नहीं ला पायी है। बहरहाल इन हालातों में आप खुद ही सोचें
कि प्रदेश में आ रहे लाखों-लाख प्रवासी मजदूरों की आजीविका व रोजगार की व्यवस्था
करने और प्रदेश में सबको रोजगार देने की योगी जी की लगातार जारी बड़ी-बड़ी घोषणाओं
की हकीकत क्या है।
बहरहाल कथित
महामानव के नाटकीय सम्बोधन और बीस लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा के लिए मैदान में
उतरी वित्त मंत्री महोदया ने अपनी पांच दिन चली थकाऊ और उबाऊ प्रेस वार्ताओं के
बाद अंतिम दिन जो कहा वह गौर करने लायक है। उनके ही शब्दों में यह कोरोना महामारी
का राहत पैकेज नहीं आर्थिक सुधार का रास्ता है। यही सच है. औद्योगिक पूंजीवाद से
वित्तीय पूंजीवाद को ओर बढ़ चली दुनिया में मोदी सरकार मनमोहन सिंह द्धारा शुरू की
गयी नई आर्थिक-औद्योगिक नीतियों को अंतिम स्वरूप प्रदान कर रही है। जिसका सीधा
मलतब है बड़ा जन विनाश, छोटे-मझोले उद्योगों,
खेती किसानी की बर्बादी, सार्वजनिक सम्पत्ति
को बेचना, नौकरियों से छटंनी, रोजगार
का खात्मा और बड़ी आबादी को बेमौत मरने के लिए छोड़ देना। सीधे शब्दों में कहें तो
रूसी क्रांति के बाद घबराए पूंजीवाद ने जिस कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को
स्वीकार किया था उसका खात्मा। इन परिस्थितियों में विपक्ष के पास भी कोई वैकल्पिक
रास्ता नहीं है बल्कि सच तो यह है कि इस वित्तीय पूंजी के रास्ते पर सबकी सहमति
है। इसलिए एनजीओ मार्का सहायता और कुछ इवेंट के अलावा आज तक देश का मुख्य विपक्षी
दल कांग्रेस कोरोना महामारी निपटने में पूर्णतया विफल रही इस सरकार से नैतिक रूप
से सत्ता छोड़ने की बात तक नहीं कह पा रहा है। हद तो यह है कि बहुजन राजनीति करने
वाली मायावती तो सीबीआई से खुद व अपने परिवार को बचाने के लिए योगी सरकार को बचाने
में ही अपनी पूरी ऊर्जा लगा रही है।
ऐसे में मेहनतकश वर्ग का यह ऐतिहासिक दायित्व
है कि वह इस विनाशकारी वित्तीय पूंजीवाद के खिलाफ एक बड़ी राजनीतिक भूमिका में आए
और राजनीतिक प्रतिवाद दर्ज करे। जनपक्षधर वैकल्पिक नीतियों पर आधारित जनराजनीति को
खड़ा करने की अगुवाई करे। वर्कर्स फ्रंट इसी दिशा मेहनतकशों के राजनीतिक
प्रतिवाद को संगठित करने का राष्ट्रीय मंच है।
19.05.2020